भ्रष्टाचार के मामले में भारत का स्थान एक बार फिर एशिया में सबसे ऊपर दर्ज किया गया है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक यहां उनतालीस फीसद लोगों को रिश्वत देकर अपना काम कराना पड़ता है। छियालीस प्रतिशत लोगों को प्रशासनिक अधिकारियों तक पहुंचने के लिए निजी संपर्काें का सहारा लेना पड़ता है। इस साल यह आंकड़ा पिछले सालों की तुलना में कुछ बढ़ा हुआ ही है। यह तब है जब पिछले छह सालों में भ्रष्टाचार दूर करने का नारा बहुत जोर-शोर से लगता आ रहा है और अनियमितताएं दूर करने, प्रशासनिक कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिए सरकार ने अनेक कड़े उपाय किए हैं। कार्यालयो में समय पर अधिकारियों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए बायोमीट्रिक हाजिरी प्रणाली लगाई गईं। तमाम कार्यालयो को इंटरनेट के माध्यम से जोड़ा गया और आम लोगों को अपनी शिकायतें दर्ज कराने, छोटे-मोटे दस्तावेज प्राप्त करने संबंधी अर्जियां देने आदि की आनलाइन व्यवस्था की गई। कई सेवाओं के लिए सरकारी कार्यालयों की खिड़कियों पर कतार लगाने की जरूरत समाप्त कर दी गई। माना गया कि इससे सरकारी कामकाज में पारदर्शिता आएगी और आम लोगों को अनावश्यक बाबुओं की बेईमानियों का शिकार नहीं होना पड़ेगा। मगर इन सब के बावजूद अगर रिश्वतखोरी की दर पहले से बढ़ी दर्ज हुई है तो हैरानी स्वाभाविक है।

ट्रांसपेरेन्सी इन्टरनेशनल की ताजा रपट के अनु
सार एशिया में सबसे अधिक भ्रष्टाचार यदि कहीं है तो वह भारत में है। दुनिया के
सबसे बड़े लोकतंत्र को इससे गंदा प्रमाण-पत्र क्या मिल सकता है? इसका अर्थ क्या हुआ? क्या यह नहीं कि भारत में लोकतंत्र या लोकशाही नहीं, नेताशाही और नौकरशाही है? भारत में भ्रष्टाचार की ये दो ही जड़े हैं। पिछले पांच-छह साल में नेताओं के भ्रष्टाचार की खबरें काफी कम आई हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था भ्रष्टाचार मुक्त हो गई है। उसका भ्रष्टाचार मुक्त होना असंभव है। यदि नेता लोग रिश्वत नहीं खाएंगे, डरा-धमकाकर पैसा वसूल नहीं करेंगे और बड़े सेठों की दलाली नहीं करेंगे तो वे चुनावों में खर्च होने वाले करोड़ों रुपये कहां से लाएंगे? रोज खर्च होने वाले हजारों रुपये का इंतजाम कैसे होगा? उनकी और उनके परिवार की ऐशो-अराम की जिंदगी कैसे कटेगी? इस अनिवार्यता को अब से ढाई हजार सालपहले आचार्य चाणक्य और यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने अच्छी तरह समझ लिया था। इसीलिए चाणक्य ने अपने अति शुद्ध और सात्विक आचरण का उदाहरण प्रस्तुत किया और प्लेटो ने अपने ग्रंथ 'रिपब्लिक' में 'दार्शनिक राजा' की कल्पना की, जिसका न तो कोई निजी परिवार होता है और न ही निजी संपत्ति। लेकिन आज की राजनीति का लक्ष्य इसके एकदम उल्टा है। परिवारवाद और निजी संपत्तियों के लालच ने हिंदुस्तान की राजनीति को बर्बाद करके रख दिया है। इसमे कोई संदेह नही है कि नेताओं का भ्रष्टाचार ही नौकरशाहों को भ्रष्ट होने के लिए प्रोत्साहित करता है।

केंद्र सरकार दावा करते नहीं थकती कि उसने भ्रष्टाचार पर काफी हद तक रोक लगाने में कामयाबी हासिल की है और प्रशासनिक कामकाज में पारदर्शिता आई है। मगर ताजा आंकड़ों में हकीकत कुछ और ही नजर आ रही है। भ्रष्टाचार पर काबू पाना इसलिए भी जरूरी माना जाता है कि इसके बिना विकास कार्याें में गति नहीं आ सकती। बाबुओं में रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति बनी रहने से अनेक परियोजनाएं बेवजह लटकाई जाती रहती हैं। फिर उनमें रिश्वत का चलन होने से लागत भी बढ़ती रहती है। मगर आर्थिक विकास पर जोर देने और आम लोगों और प्रशासन के बीच की दूरी खत्म करने के दावों के बावजूद अगर रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति पर काबू नहीं पाया जा सका है और प्रशासनिक अधिकारियों की जनता से दूरी बढ़ती गई है, तो यह सरकार की विफलता ही कही जाएगी। भारत में रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति इस कदर जड़ें जमा चुकी है कि आम लोगों में यह धारणा दृढ़ हो गई है कि बिना रिश्वत

के कोई काम हो ही नहीं सकता। अपनी जमीन-जायदाद के दस्तावेजों की नकल लेने जैसे छोटे-मोटे काम भी बिना रिश्वत के नहीं होते। कचहरियों और जिला कार्यालयों में तो अलग-अलग कामों के लिए रिश्वत की दरें तक तय हैं। इस तरह बहुत सारे लोग अधिकारियों को रिश्वत देकर गैरकानूनी तरीके से अपना काम कराते रहते हैं और वास्तविक हकदारों को उनका हक नहीं मिल पाता। रिश्वतखोरी और जनता से अधिकारियों की दूरी, दोनों आपस में जुड़े हुए हैं। अधिकारियों से लोगों की नजदीकी बढ़ेगी, वे उनकी समस्याएं सीधे सुनने लगेंगे, तो रिश्वत का चक्र टूट जाएगा। एक लोकतांत्रिक देश में इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि वहां के नागरिक अपने लोकसेवकों से सीधे न मिल पाएं, उसके लिए उन्हें किसी संपर्क सूत्र की जरूरत पड़े।

भ्रष्टाचार की इस नारकीय वैतरणी के जल का सेवन करने में सभी आगे है इसीलिए हाल मे हुए एक सर्वेक्षण से पता चला कि भारत के लगभग ९० प्रतिशत लोगों के काम रिश्वत के बिना नहीं होते। आजकल भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार हो गया है। हमारे नेताओं और नौकरशाहों को गर्व होना चाहिए कि एशिया में सबसे अधिक शिष्ट (भ्रष्ट) होने की उपाधि भारत को उन्हीं की कृपा से मिली है। भ्रष्टाचार के इस कलंक को मिटाने के लिए सरकार को चाहिए कि वो कड़े कानून बानाने के साथ नौकरशाही और नागरिकों के बीच की दूरी को खत्म करने का प्रयास करे तभी कुछ हद तक इस पर अंकुश लगाया जा सकता है।

    अभिषेक पाण्‍‍‍‍‍‍डेेेय
संपादक:  द नेचुरल न्‍यूज

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