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के दौर में हमारे एक मात्र चैनल दूरदर्शन पर रामायण आते वक्त शहर, कस्बों,
गाँवों में कर्फ्यू सा लग जाता था जैसे.. तब गाँवों में बिजली या तो आती
ही नहीं थी या फिर सप्ताह में सात दिन सुबह और सात दिन रात का अस्थाई रूप
से शेड्यूल रहता था.. तब ट्रैक्टर भी विरले ही घरों में पाए जाते थे
क्योंकि वो दौर बुग्गी और बैलगाड़ियों का था.. परन्तु हर इतवार रामायण देखने
की श्रद्धा या जूनून लोगों पर इस कदर हावी था की कैसे भी दूर दराज से
ट्रैक्टर की बैटरी का जुगाड़ कर लिया जाता था... बैटरी लाने के बाद मोहल्ले
के एक बड़के भइया उसके DC तारों को T.V. के पीछे जोड़कर चालू कर अपना भोकाल
टाइट कर लेते थे.. अब रामायण शुरू हो चुकी होती थी और मोहल्ले की टोली उसको
बड़ी शांति और चाव के साथ बैठकर देखा करती थी!
उसी
टोली से ही कुछ वृद्ध महिलाएं श्रीराम बने "अरुण गोविल जी" और "सीता मैया"
के सामने आते ही पूजा की थाली से टी.वी. की आरती करने लग जाती थीं और कुछ
हाथ जोड़कर बैठ जाया करती थीं... और हम बच्चे आल्ती-पालती मारके बड़े बड़े गौर
से ये सब देखा करते थे!
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