
जाहिर है कि वह नाइन्साफी वाली बात थी। आधुनिकता ने 20 वीं सदी में इन्सान के पाव में पडी सामान्ती बेडियां तोड कर ओर हर वयक्ति को ज्यादा से ज्यादा आगे बढने का मौका देकर निश्च्य ही एक बहुत ने काम किया । लेकिन हैरानी यह है कि 20 वी सदी के आरम्भ में हर कहीं यह देखा जा रहा कि सफलता की होड में लगे हुए अधिकतर लोग कभी न कभी किसी न किसी हद ते अपने को विफल पा रहे हैं और इसलिए दुखी और असन्तुष्ट हो रहे है। यही नही, हर समाज में ऐसे लोगों की तादाद तेजी से बढती चली जा रही है जो अपने को अपने काम को अपने आस पास को सर्वथा महत्वहीन पाते है। लोगो का रहन सहन का स्तर पहले से कही उचा हो गया है लेकिन हर कोई अपने को अभावग्रस्त समझ रहा है और कुछ और पाने की कोशिश में लगा हुआ है। मेरे बचपन की दुनिया आप के मानको के अनुसार भयंकर अभावों में जीने वाली और सर्वथा महत्वहीन लोगो की दुनिया थी। मै कह रहा था कि मेंर बचपन की दुनिया के महत्वहीन इन्सान भी न जाने क्यो अपने को महत्वपूर्ण समझतें थे इसकी एक वजह तो शायद यह थी कि अमानवीय उचनीच वाले उस समाज में हर किसी की एक खास जगह नियत थी हर किसी का एक खास दायित्व था और उस जगह और उस दायित्व को ही शोषण करने के इरादे से ही महत्वपूर्ण ठहराया जाता था। हर जात बिरादरी के अपने अपने खास त्योहार और खास मिथक थे और साल में एक ही सही हर जाति के व्यक्तियों को खास महत्व दिया जाता था। हर कियी के काम को समज की द्ष्टि से महत्वपर्ण ठहराया जाता था। तब हर करीगर अपनी करीगरी पर नाज करता था और अपने आप को सफल मानता था
एक टिप्पणी भेजें
एक टिप्पणी भेजें